नीर भरी बदली से व्याप्त है गगन
फिर भी क्यों भड़क उठा यह कानन?
उपर उठती लौ कौनसी
और कौनसे हैं श्यामल बदल
आपस में मिलकर दोनों एक से मलीन लग रहे हैं !
दावानल की उदास रोशनी में
मैं खोज रहा हूँ जीवन
खोज रहा हूँ पल्लवित अंकुर
आशा की एक किरण
लेकिन सिर्फ़ मृत जीवों के कंकाल मिल रहे हैं !
प्रकाश ढूँढ रहा था
वन के घोर तिमिर में
थक कर निष्क्रिय हो बैठा हूँ
निशांत के इंतजार में...
लेकिन अब लगता है कि सूरज ही काला है !
लौ से उठते धुँए के बीच खड़ा हो
मैं याद करता हूँ वह सारे पल
धुँधली हैं बीते कल की यादें
और अस्पष्ट है आने वाला कल
इसलिए आज बढ़ते कदम थाम रहा हूँ
मेरे अलिखित कल से मिलने के लिए!
mast.. kya opening ki hai bhai...
ReplyDeleteawesome ... m luvng it ... just keep gng like this only ..
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